वक्त से गुजरें जब राहों से आम्र कुञ्ज में कुहकी कोयल
घर से ज्वार डगर में भारी होती रही अजबसी हलचल
1
नई कोयले मन में फूटी आज विचारो के ठूठो पे
कौए ताक लगाए बैठे बाग बगीचे सुने-सुने
मय साने में मय की कल कल
२
बरजोरी और सीना बुल-बुल पिंजड़े बंद रहेंगी
परछाई से करें हिफ़ाजत कब तक अबला कष्ट सहेगी
चारों सम्त लुहानी दल-दल
३
मह का उपवन भीगा तन मन
कालिया बैठी नैन बिछाएं
फाल्गुन होरी खेल सखी संग
केसरिया पी भी बौराए
उनके नैना खंजन चंचल
४
पत्ता पत्ता भी व्याकुल है माँ की आँचल में सोने को
असक शबनमी व्यथा कहेंगे नहीं बचा कुछ कहने को फूलों की गुंचे भी अविचल
बालों में जूगनू चमके तो समझो पतछड़ आने वाला
५
रंग लाएगी ‘हीना’ अपना श्याह रंग नहीं आने वाला
तुम क्यों अपनी जगह ढूढ़ते- पानी ढूंढेगा अपना तल
६
अमलतास है आने वाला क्यूँ पलाश ने आग लगायी
लाली की शोभा चुनर से चुनर में सब श्रष्टि समाई
बौराई अभुवा की डाली कचनारों ने ली अगड़ाई
कटते नहीं विरह की पल पल
written by Retd. Exn. ShiyaRam Sharma
kota, Rajasthan